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“ट्रस्ट विद डेस्टिनी”

15 अगस्त 1947, आधी रात का समय था। दिल्ली के लाल किले में चारों ओर गहमा-गहमी थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने ऐतिहासिक भाषण की तैयारी कर रहे थे – “ट्रस्ट विद डेस्टिनी”। मगर इस बड़े मंच के पीछे, एक और कहानी चल रही थी, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।

दिल्ली की संकरी गलियों में, पुरानी दिल्ली के एक छोटे से मकान में, एक परिवार रेडियो के सामने बैठा था। बूढ़ी अम्मा की आँखों में आँसू थे। उनका बेटा, जो (आजाद हिंद फौज) में था, कई साल पहले ही युद्ध में शहीद हो गया था। लेकिन आज, उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे बेटे की कुर्बानी रंग लाई है।

इधर, चांदनी चौक की एक मिठाई की दुकान पर मिठाइयाँ बाँटी जा रही थीं। दुकानदार को याद आ रहा था कि कैसे उसने आज़ादी के लिए आंदोलनकारियों को अपने दुकान के पीछे छुपाया था। ब्रिटिश पुलिस की निगाह से बचाने के लिए उसने अपने गल्ले में पर्चे और पत्रक छुपाए थे।

दूसरी ओर, किंग्सवे कैंप में एक पुराना सैनिक अपने साथियों के साथ जश्न मना रहा था। उसने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल काटी थी। वो कह रहा था –
“हमने सिर्फ अंग्रेज़ों से नहीं, डर और गुलामी की सोच से भी लड़ाई लड़ी है।”

और उस रात, जब नेहरू का भाषण खत्म हुआ और तिरंगा लहराया, हर गली, हर मोहल्ला, हर गाँव और हर शहर में एक ही एहसास था – “अब हम अपने हैं, और ये धरती हमारी है।”

यह कहानी सिर्फ नेताओं और बड़े आयोजनों की नहीं, बल्कि उन लाखों गुमनाम लोगों की है, जिनकी छोटी-छोटी कुर्बानियाँ मिलकर भारत को आज़ाद करने में लगीं थी।

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